आरक्षण वरदान या अभिशाप

एक नजर
आरक्षण भारत मे एक ऐसा मुद्दा है जो देश मे राजनीति को आज़ादी के समय से ही प्रभावित करता आया है, और कहना गलत नही होगा कि ये मुद्दा आगे भी देश की राजनीति को प्रभावित करता रहेगा। क्योंकि शायद यह एकलौता ऐसा मुद्दा है जिससे भारत का कोई भी नागरिक अछूता नही है। इसको इस प्रकार से भी समझ सकते है कि उदाहरण के लिए बिजली मेरे लिए मुद्दा नही है, लेकिन आपके लिए है। रोटी, कपड़ा, आपके लिए मुद्दा नही है, लेकिन मेरे लिए है, गांव में सड़क मुद्दा है लेकिन शहर में हरियाली। शहर वालो को कोई आपत्ति नही अगर गांव को सड़क मिल जाये, और गांव वालों को भी कोई आपत्ति नही अगर शहर को हरियाली मिल जाये।अगर देखा जाए तो आरक्षण ही एकलौता ऐसा मुद्दा है जिससे देश का हर एक नागरिक प्रभावित हो रहा है, चाहे इस व्यवस्था के होने से या चाहे इस व्यवस्था के ना होने से। आरक्षण का मुद्दा देश के हर नागरिक को प्रभावित करता आया है और शायद करता रहेगा। क्योंकि आरक्षण की व्यवस्था ऐसे क्षेत्रों के लिए है जिसकी जरूरत हर नागरिक को है। चाहे वो शिक्षा हो या रोजगार।आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए या नही होनी चाहिए उसपे चर्चा कठिन है, और शायद ये एक छोटे से लेख में लिखी भी नही जा सकती। बल्कि इसके लिए एक पूरी किताब भी शायद कम पड़ जाए। इसलिए इसके इतिहास की तरफ ना जाते हुवे हम वर्तमान व्यवस्था पे ही एक नजर डालते है। लेकिन उसके पहले सिर्फ इतना जान लेना जरूरी है कि इस व्यवस्था को लाया क्यों गया था।आज़ादी के पहले से ही देश का एक तबका घृणा, छुआछूत और अपेक्षा का शिकार था जिसके कारण उनका जीवन काफी दयनीय था। और यह तबका मुख्यतः कुछ विशेष जातियों से आते थे। इसी तबके को एक सामान्य जीवन देने के लिए देश मे जाती के आधार पे आरक्षण की व्यवस्था को लाया गया।लेकिन वर्तमान में देख के क्या आप बता सकते है कि इस व्यवस्था से देश के उस तबके को कोई खास फायदा हुआ है या नही? और अगर हुआ है तो कितना और किन लोगों को ?क्या उन लोगो को इस व्यवस्था का फायदा हुआ जिन्हें असल मे इस व्यवस्था की जरूरत थी?इन सवालों का जवाब ढूंढना कठिन नही है लेकिन शायद हम जवाब ढूंढना नही चाहते और सिर्फ सवाल करके अपने आप को तसल्ली दे रहे है। जबकि अगर देखा जाए तो जवाब बिल्कुल ही हमारे सामने है और स्पष्ट है।खैर इस मुद्दे को सामन्यतः लोग दो ही दृष्टिकोण से देखते है। सामान्य वर्ग के दृष्टिकोण से या फिर उस तबके के दृष्टिकोण से जिन्हें आरक्षण का कथित लाभ प्राप्त है। और आपस मे ही एक दूसरे पे कीचड़ उछालने का काम करते है। लेकिन दोनों तबका एक साथ खड़ा होकर कभी कोई ऐसा अभियान नही छेड़ता जिसमे सरकार, विपक्ष या फिर अन्य राजनैतिक पार्टियों से सवाल किया जा सके। जिसका लाभ सीधे सीधे इन राजनैतिक पार्टियों और इनके कुछ नेताओं को पहुंचता है। क्योंकि शायद इन नेताओं को पता है कि हम इंसान के रूप में टमटम के वो घोड़े है जिन्हें उतना ही दिखेगा जितना टमटम चलाने वाला उन्हें दिखलाना चाहता है। इसीलिए अधिकांश राजनेता इस मुद्दे पे बस दो ही बात बोलते है कि आरक्षण होना चाहिए या नही। और इस मुद्दे पे वो अपने योगदान को छुपा लेते है।चलिए थोड़ा विस्तार से समझिए इस बात को। अगर शिक्षा की बात करे तो आरक्षण का लाभ किन्हें मिल सकता है। शायद उन्हें जो अपने बच्चों को पढ़ाने में सक्षम हो या फिर उन्हें जिन्हें शिक्षा व्यवस्था सरलता से कम पैसे में प्राप्त हो जाये जैसा कि शहरों में होता है, लगभग हर 2 से 3 किलोमीटर पे एक या उससे अधिक सरकारी या प्राइवेट स्कूलों के होने से। लेकिन क्या गांव में ऐसी ही व्यवस्था है ? मैं आंकड़े नही दे रहा आपको क्योंकि आंकड़ो के लिए बहुत सारे साधन है जहाँ पहुंचना मुश्किल नही है, आज कल तो लोग हर बात के लिए गूगल का सहारा लेते है चाहे वो उनके जीवन को प्रभावित कर रही हो या नही। जैसे कि भारत के लोग अगर इंटरनेट पे सर्च करेंगे कि अमेरिका में कौन सी सांपो की प्रजातियां पाई जाती है, और अपने देश के सबसे जहरीले सांपो की प्रजाति (नेता) को नही पहचान पाते। एक बार देश के गांवों में मौजूद शिक्षा व्यवस्था पे भी एक नजर डाल लेंगे इस इंटरनेट की सहायता से तो शायद इन्हें पहचानने में थोड़ी सहूलियत हो जाएगी। खैर बात को आगे बढ़ाता हूँ, मेरे हिसाब से तो भारत के अधिकांश गांव के बड़े बड़े इलाको में सामान्य शिक्षा व्यवस्था नही पहुंची है, और ये बात मैं बिना गांव घूमे नही बोल रहा। हां ये बात भी सही है कि मैं सारे गांवो में नही घुमा हूं और शायद ये मुमकिन भी नही। लेकिन सहायता के लिए इंटरनेट है जो आंकड़ो को तकरीबन साफ कर देती है। कहीं प्राइमरी स्कूल है तो सेकंडरी नही, और मान लीजिये की सेकंडरी स्कूल की व्यवस्था है भी तो कॉलेज की पढ़ाई के लिए अधिकांश बच्चों को शहरों का ही रुख करना पड़ता है। अब जरा सोचिए कि कितने फीसदी ऐसे माँ बाप होंगे जो अपनी सामान्य दिनचर्या की जरूरतों को भी पूरी तरीके से पूरा नही कर सकते पैसों के अभाव में, वो अपने बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उनके शहर के महँगे लाइफस्टाइल का खर्चा कहाँ से उठा पाएंगे ? खैर ये तो दूर की बात हो गयी, गांव में एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो प्राथमिक शिक्षा को शिक्षा मान के बैठा हुआ है जबकि प्रथमिक शिक्षा को हमारी शिक्षा व्यवस्था में केवल साक्षरता प्राप्त होने का साधन मानस गया है। जबकि असल शिक्षा आपके साक्षर होने के बाद शुरू होती है। लेकिन अधिकांश बच्चों की शिक्षा साक्षर होने के बाद दम तोड़ देती है, जिनमे मुख्यतः लड़किया होती है। पांचवी की पढ़ाई के बाद उन्हें अपने घर के कामो में लगा दिया जाता है आगे की शिक्षा के आसान व्यवस्था को नही देखते हुवे। और वो अपने बच्चों को अपनी मजबूरी नही समझा पाते इस लिए थोड़े कुतर्को का भी सहारा लेते है, जैसे कि अब आगे पढ़ के क्या करोगी, घर के काम सीखो शादी के बाद काम आएंगे, या फिर आगे पढ़ के अफसर बनोगी क्या। खैर फिर कुछ और बच्चे 10वीं या 12वीं तक कि पढ़ाई पूरी करते है और उसके बाद कॉलेज की महँगी शिक्षा व्यवस्था को देखते हुवे कुछ माँ बाप का हौसला फिर से टूट जाता है। और वो अपने कमजोर आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति के कारण मजबूर होकर बच्चों को गांव में ही रोक लेते है। कुछ बच्चे शहर का रुख कर लेते है तो कुछ गांव के अगल बगल मौजूद लचर कॉलेजो में दाखिला ले लेते है। मतलब की अधिकांश बच्चों को नौकरी या फिर कहे तो अच्छी नौकरी के लिए पर्याप्त शिक्षा प्राप्त ही नही हो पाती है।मुझे तो ये पिछले 60-70 सालों से चली आ रही एक बड़ी साजिश लगती है राजनैतिक पार्टियों की। जिसके तहत वो आरक्षण की बात भी करेंगे और आपको पूर्णतः शिक्षित भी नही होने देंगे। ताकि ना वो शिक्षित हो पाए ना नौकरी मांग पाए।तो फिर आरक्षण का लाभ मिलता किसको है ? इनमे से कितने लोग ऐसे होते है जो असल मे उसी पिछड़े तबके से जद्दोजहद करके आगे तक आते है ? जवाब शायद इस लेख में पहले ही दिया जा चुका है इसलिए दोबारा अपनी बातों को दोहराऊंगा नही। लेकिन ये जानना भी आवश्यक है कि लाभान्वित तबका कहाँ से आता है। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ कि शिक्षा दो ही तरह के लोगो को हासिल है। या तो जिन्हें आसानी से हासिल हो जाये, या फिर जिनके माता पिता उन्हें पढ़ाने में सक्षम हो। गांव में शिक्षा कितनी आसान है इसको तो पहले ही परिभाषित कर दिया गया है। पर शहरों में शिक्षा प्राप्त करना आसान है। इसीलिए शायद आज गांवो के देश भारत मे कोई भी बच्चा गांव में रहना नही चाहता। सब देर सवेर शहरों का रुख कर ही लेते है। जिसके कारण गांवो के अधिकांश घरों में अब ताला लटकता है। शहर में ये बच्चे बड़े होते होते तक आर्थिक और सामाजिक रूप से थोड़े मजबूत हो जाते है और फिर इनके बच्चे पढ़ लिख कर आरक्षण के लाभान्वित बनते है। तो फिर उस बच्चे का हक कहाँ गया जो गांव की कमजोर शिक्षा व्यवस्था के कारण कभी इस व्यवस्था के फायदों से जुड़ ही नही पाया, या फिर कहे तो जिसे उसका लाभ मिलना चाहिए था। और मैं इसमे भी यही कहूंगा कि लोगो की गलती नही है अगर वो सक्षम होते हुवे भी आरक्षण का लाभ लेते है। बल्कि राजनैतिक पार्टियों की सोची समझी साजिश है कि इस भ्रष्ट व्यवस्था के होते हुए भी कोई तो लाभ ले ताकि सरकार पांच साल में एक बार आंकड़े दे सके।
तो फिर दोषी कौन ?
आप, मैं या फिर हमारी सरकारी व्यवस्था जिनकी जिम्मेदारी थी !जवाब थोड़ा बहुत स्पष्ट हुआ होगा शायद।बाबा साहब अम्बेडकर ने देश के भले के लिए आरक्षण की व्यवस्था लायी थी लेकिन देश की तमाम सरकारों ने इसे सिर्फ अपने लिए सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बनाये रखा। और आज शायद बाबा साहब को देश का संविधान लिखने के लिए कम और आरक्षण की व्यवस्था देने के लिए ज्यादा याद करती है।अंत मे मैं सिर्फ यही कहूंगा कि आप एक दुकान के बाहर खड़े हो जहां 100 रुपये का सामान 50 रुपये में मिलता है लेकिन आप उसे नही खरीद सकते क्योंकि आपको दुकान का मालिक 50 रुपये कमाने ही नही देगा। और वो सामान वो व्यक्ति खरीद के ले जाएगा जो उसे 100 रुपये में खरीद सकता था। इसी व्यवस्था को आरक्षण करते है ।आपसी मतभेदों को भूल के समाज का हर तबका सरकार से अगर सवाल पूछे तो शायद सरकार जवाब ढूंढेगी। नही तो आरक्षण का लाभ शायद उन लोगो तक कभी नही पहुंच पायेगा जिनके लिए ये व्यवस्था एक वरदान थी । लेकिन ये कुछ मेहनती छात्रों के लिए अभिशाप जरूर बनी रहेगी।हां मगर कुछ नेता बार बार आरक्षण के होने या ना होने को मुद्दा बना के, और कुछ आरक्षित सीटों से बार बार चुनाव जीत के लोकसभा और विधानसभा पहुंचते रहेंगे।

ये लेख मेरे व्यक्तिगत विचारों के ऊपर है, इसका किसी और से कोई लेना देना नही है।

सम्मी कुमार

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