एक नजर-बिहार में क्रिकेट जुनून या रोग

आप सब सोच रहे होंगे कि एक खेल भला रोग कैसे हो सकता हैए और वो भी एक ऐसा खेल जो पूरे भारत को एक साथ खुश होने काए रोने काए या फिर कहे तो एक साथ खड़े होने का बहाना देता है। अगर आप ऐसा सोच रहे है तो पहले एक बार बिहार में इस खेल के हालातों पे नजर डाल लीजिये शायद आपकी विचारधारा बदल जाएगी।
भारत मे कोई भी बच्चा जब बड़ा हो रहा होता तो माँ बाप अपने बच्चे के लिए बाज़ार से बल्ला खरीद कर ले आते हैं। और वो बच्चा भी तभी से एक सपना देखने लगता है भारत की तरफ से क्रिकेट खेलने का। और ऐसा हम सभी के साथ कभी ना कभी हो चुका है। और हम ही में से कुछ को ये मौका मिलता भी है कि हम में से कुछ लोग आगे जाकर देश का प्रतिनिधित्व करे। लेकिन क्या ये बातें बिहार में लागू होती है घ् हाँ ये बात सही है कि हमारे माता पिता ने भी बल्ला लाकर दियाए हमने भी पूरे भारत की तरह वही सपना देखाए और हमारी भी मेहनत उतनी ही कड़ी थी जितनी बाकी के राज्यो के लड़कों की होती है। लेकिन फिर सपने पूरे क्यों नही होते घ् क्या कमी रह जाती है हमारी मेहनत में घ् बहुत सारे लोगो को हकीकत पता है लेकिन फिर भी वो कहेंगे कि ये सब असफलता हाथ लगने के बाद वाले बहाने है अपने खराब खेल को छुपाने का। उनसे भी बहुत सारे सवाल पूछे जाएंगे आगे।
पहले हालातो के बारे में जान लेते है। बिहार की राजधानी पटना की बात करे तो यहाँ का सबसे बड़ा स्टेडियम है मोइन.उल.हक स्टेडियम जो पटना शहर के एक शहरी इलाके में स्थित है। बिहार में क्रिकेट को मान्यता दिलाने के लिए जंग लड़ रहे तीनो ही क्रिकेट एसोसिएशन के हेड आफिस भी यही पर स्थित है। जिनमे BCA,ABC,CAB शामिल है। तीनो की मांग है कि बिहार में जब भी क्रिकेट को मान्यता मिले तो उन्हें ही बिहार का मुख्य क्रिकेट बोर्ड बनाया जाए। तो शायद फिर तो उनका योगदान भी उसी प्रकार का होना चाहिए तब तो घ् एक बार फिर से सोचिए। या फिर एक बार पटना के इस सबसे बड़े स्टेडियम का दौरा कर लीजिए।
मोइन उल हक स्टेडियम की स्थापना 1969 में हुवी थी। अगले साल इस स्टेडियम के पच्चास साल पूरे हो जाएंगे। लगभग इस 50 साल के इतिहास में अभी तक मात्र दो अंतरराष्ट्रीय मैच का आयोजन कर चुके इस स्टेडियम में पिछले 21 सालों में एक भी अंतरराष्ट्रीय मैच नही हुआ है। अंतरराष्ट्रीय मैच छोर दीजिये। जब बिहार और झारखंड अलग हुवे उसके बाद बिहार के इस सबसे बड़े स्टेडियम में एक रणजी मैच भी नही हुआ है। हाँ आजकल पटना के क्रिकेटरों को ऊर्जा स्टेडियम के रूप में एक नई ऊर्जा मिली है। जो कि आज या कल बिहार में काम करने वाले सरकारों के उदासीन रवैये की भेंट चढ़ ही जाएगी। इनके अलावा राजगीर में एक स्टेडियम का निर्माण चल रहा है। इसका निर्माण कब तक पूरा हो जाएगा कहना मुश्किल है। हालांकि जब इसकी नींव रखी गयी थी तो कहा गया था कि 633 करोड की लागत से बनने वाला ये स्टेडियम क्रिकेट के साथ साथ 25 खेलो का केंद्र बनेगा। लेकिन राज्य सरकार का इससे मिलता जुलता एक वादा पाटलिपुत्र स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स के रूप में विफलताओं की भेंट पहले ही चढ़ चुका है। हालांकि इस मल्टी स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स में महिला कबड्डी के एक वर्ल्ड कप का आयोजन हो चुका है यहाँ और कुछ प्रो कबड्डी के सीजन भी इस बड़े बजट से बने स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स में खेले गए है। उसके बाद क्याए थोड़ा सा हुड़दंग हुआ और पटना की टीम का होम ग्राउंड रांची के भगवान बिरसा मुंडा अंतराष्ट्रीय स्टेडियम को बना दिया गया। आप सोच के देखिए कि कबड्डी के खिलाड़ी जिनकी ख्याति क्रिकेटरों के मुकाबले कुछ ण्5 प्रतिशत भी नही होगी। और कबड्डी के दर्शक भी कुछ इतने ही होंगे प्रतिशत में। उसमे भी जब प्रो कबड्डी जैसे सस्ते और बिना कोई खास तामझाम वाले खेल के आयोजन में पर्याप्त सुरक्षा नही दे सकते वो सरकार या प्रशासन क्रिकेट जैसे खेल जिसके लिए पागलपन इतनी है कि शायद अंदाज़ा लगाना भी मुमकिन नहीए उस खेल और उसके बड़े ख़िलाफियो को कहां से सुरक्षा देगी। खैर ये तो अभी दूर की कौड़ी हैए फिलहाल क्रिकेट को तैयार करने से पहले क्रिकेटर तैयार कैसे करेंगे वो सोचे। मतलब क्रिकेट जैसे महंगे खेल को छोड़ देए कबड्डी जैसे सस्ते खेल जिसमे आप चाहे तो सिर्फ एक लाइन खींच के भी खेल को खेल सकते है। हाँ लेकिन अगर आप एक राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी है तो शायद आपको कुछ सस्ते उपकरण खरीदने पर सकते हैं। लेकिन फिर भी ये खर्च क्रिकेट के मुकाबले 10 प्रतिशत भी नही होगा। फिर भी कबड्डी जैसे खेल के लिए भी अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बिहार के खेल के ठेकेदार दे नही पाएए वो ना जाने राष्ट्रीय लेवल का क्रिकेटर कैसे देंगे। हाँ कुछ लोग बोल सकते है कि बिहार ने कीर्ति आजादएसबा करीमए और अंदर 19 के लिए ईशान किशन और अनुकूल रॉय जैसे पतिभाषाली क्रिकेटर दिए है। और इसके अलावा भी आईपीएल में कई खिलाड़ी बिहार की धड़ती से चुने जा चुका है। तो उसकी हकीकत की भी एक पड़ताल कर लीजिए। आज बिहार के कुछ बड़े क्रिकेटर झारखंड की तरफ जा रहे जिनमे कुछ मुख्य नाम है पटना के ईशान किशनए बक्सर के शाहबाज नदीमए समस्तीपुर के अनुकूल रॉयए पटना के एक और उभरते सितारे रजनीश कुमार जो अभी बहुत ही अच्छा खेल रहेए इनके अलावा और ऐसे नाम इस फेहरिस्त में भरे पड़े है। कुछ पुराने नामो पे नजर डाले तो सबा करीम ने भी बंगाल की तरफ से खेल के भारत के टीम तक का सफर तय किया। झारखण्ड श्एश् टीम के तरफ से खेल चुके एक बिहारी क्रिकेटर से बात की तो उसने बताया कि जब वो झारखण्ड की तरफ से खेलने के बाद वापस बिहार की तरफ से खेलने आया तो बिहार के क्रिकेट संघो ने उसके साथ बिल्कुल ही सौतेला व्यवहार किया और उसे कभी बिहार के राष्ट्रीय टीम में चुना ही नही। बहाने के लिए कभी उसे ओवर एज बताया तो कभी अनफिट। जिसके कारण उसे क्रिकेट त्यागना पड़ा। अब कभी कभी टेनिस बॉल से क्रिकेट खेल के अपने पुराने दिनों को याद कर लेता है। कुछ और क्रिकेटर्स को जानता हूं जिनसे मैंने कभी पूछा नही बल्कि उन्होंने ही बोल दिया कि बस एक बार सरकारी नौकरी मिल जाये तो क्रिकेट छोड़ दूंगा।

बिहार में खेल के साथ राजनीति के साथ साथ खेल के प्रति उदासीन रवैये का भी एक अजीब तालमेल है। संघ में बैठे लोग खेल की जगह राजनीति से आते है। तो खेल तरक्की करेगा या राजनीति ये बताना मुश्किल नही। बाकी बात रही पुराने क्रिकेटरों की तो संघ का अध्यक्ष बनना तो दूरए छोटे मोटे पदों पे भी नही आ जाए तो गंगा नही बल्कि गंगोत्री नहा के आ गए। हाँ किस्मत थोड़ी अच्छी रही तो किसी जूनियर टीम के कोच बना दिये जायेंगे और वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वहां क्रिकेट सिखाना पड़ता है। नही तो वहां भी किसी नेता का भला हो रहा होता। और जो लोग जानना चाहते है कि बिहार और दूसरे राज्यो में क्या फर्क है तो एक बार पश्चिम बंगाल का उदाहरण देख ले। जहाँ के अध्यक्ष सौरव गांगुली ने कई वर्षों तक राष्ट्र को अपनी सेवाएँ दी। और आज बंगाल के क्रिकेट को वापिस बहुत तेज़ी से पटरी पर ला रहे। हमारे बाद बना राज्य झारखण्ड ने 2005 से ले कर अब तक भारत को 3 क्रिकेटर दिए जिन्होंने मैदान पे नीली जर्सी पहनीए जिनमे से एक तो है भारतीय टीम के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी जिन्हें किसी भी परिचय की आवश्यकता नहीए उनके अलावा दो और नाम है सौरव तिवारी और वरुण आरोन। और मेरा भरोसा है कि खेल के नए तकनीकों से जिस प्रकार ये राज्य जुड़े हुवे हैए ये आगे भी ऐसे नाम देते रहेंगे। विषय चिंता का तो बिहार के लिए भी नही हैए यहां के भी क्रिकेटर राष्ट्रीय टीम में जगह पाते रहेंगे लेकिन ये मौका उन्हें शायद ही बिहार का प्रतिनिधित्व करके हासिल होगा। स्थिति इसी बात से स्पष्ट हो जाएगी कि क्रिकेट संघ के पूर्व अध्यक्ष या फिर कहे तो पूर्व मालिक श्री लालू प्रसाद यादव जी के बेटे तेजस्वी यादव दिल्ली की तरफ से क्रिकेट खेलते थे। लेकिन चापलूसी का ये आलम था कि उन्हें बिहार का सबसे प्रतिभाशाली क्रिकेटर का अवार्ड तक दे दिया गया। आप समझ सकते है कि जो क्रिकेटर कभी बिहार के लिए खेला भी नही उसे बिहार का सबसे प्रतिभाशाली क्रिकेटर क्यों चुना गया। या फिर इसे इस प्रकार से भी देख सकते है कि बिहार के सबसे प्रतिभाशाली क्रिकेटर का अवार्ड लेने वाले ने कुछ ही सालो के बाद सारी सहूलियते होने के बावज़ूद क्रिकेट क्यों छोड़ दिया।ऐसे लड़के में कौन सी प्रतिभा देख ली थी अवार्ड देने वाली ज्यूरी ने। अब इसे चापलूसी ना कहे तो और क्या कहे। इन चापलूसों की चापलुसियो के कारण बिहार के गरीब घर के आशावान क्रिकेटर राजनीति की भेंट चढ़ जाते है। हालांकि अभी भी सांसद पप्पू यादव के पुत्र सार्थक यादव दिल्ली जाकर क्रिकेट खेल रहे लेकिन उनके साथ अभी तक कोई ऐसी घटना नही हुवी है जो क्रिकेटरों की आशा को थोड़ा बहुत ज़िंदा रखे हुवे है।
कभी कभी खुद को एक क्रिकेटप्रेमी होने के नाते खुश किस्मत भी समझता हूं कि अच्छा हुआ कि झारखंड अलग हुआ और हमे महेंद्र सिंह धोनी जैसा राष्ट्रीय सेवक मिला। नही तो शायद वो आज भी खड़गपुर स्टेशन पे टिकट कलेक्टर की नौकरी कर रहे होते। और हम आज भी वर्ल्ड कप के सपने देख रहे होते।
सम्मी कुमार

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