वैदिक उपदेश

आइए आज के वैदिकोपदेशशृंखला में हम कर्म और कर्मफल विषय पर कुछ चिन्तन करें ।कर्मों का फल कब, कैसा, कितना मिलता है, यह जिज्ञासा सभी धार्मिक व्यक्तियों के मन में होती है। कर्मफल देने का कार्य मुख्य रूप से ईश्वर द्वारा संचालित और नियन्त्रित है।वही इसके पूरे विधान को जानता है। मनुष्य इस विधान को कम अंशों में और मोटे तौर पर ही जान पाया है क्योंकि उसका सामर्थ्य ही इतना है। ऋषियों ने अपने ग्रन्थों में कर्मफल की कुछ मुख्य-मुख्य महत्वपूर्ण बातों का वर्णन किया है।
कर्म की परिभाषा- दार्शनिक दृष्टिकोण से सामान्य रूप से कर्म की यह परिभाषा बनाई जा सकती है कि ‘सुख की प्राप्ति व दुःख की निवृति’ के लिए जीवात्मा शरीर से, वाणी से और मन से जो चेष्टा विशेष करता है उसको ‘कर्म’ कहते हैं। अर्थात् कर्म के तीन साधन हैं –1-शरीर 2- वाणी और 3-मन
सकाम व निष्काम कर्मफल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के होते हैं। १. सकाम कर्म, २, निष्काम कर्म। सकाम कर्म उन कर्मों को कहते हैं जो लौकिक फल (धन, पुत्र, यश आदि) को प्राप्त करने की इच्छा से किए जाते हैं। तथा निष्काम कर्म वे होते हैं जो लौकिक फलों को प्राप्त करने के उद्देश्य से न किए जाएँ अपितु ईश्वर अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से किए जाएँ।सकाम कर्म तीन प्रकार के होते हैं- अच्छे, बुरे व मिश्रित कर्म। अच्छे कर्म- जैसा सेवा, दान, परोपकार करना आदि। बुरे कर्म- जैसे झूठ बोलना, चोरी करना आदि। मिश्रित कर्म- जैसे खेती करना आदि। इसमें पाप व पुण्य (कुछ अच्छा कुछ बुरा) दोनों मिले जुले रहते हैं।निष्काम कर्म सदा अच्छे ही होते हैं, बुरे कभी नहीं होते। सकाम कर्मों का फल अच्छा या बुरा होता है। जिसे इस जीवन में या मरने के बाद मनुष्य, पशु, पक्षी आदि शरीरों में अगले जीवन में जीवित अवस्था में ही भोगा जाता है। निष्काम कर्मों का फल ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति के रूप में होता है। जिसे जीवित रहते हुए समाधि अवस्था में व मृत्यु के बाद बिना जन्म लिए मोक्षावस्था में भोगा जाता है।कर्मफल कब जो कर्म इसी जन्म में फल देनेवाले होते हैं उन्हें ‘दृष्टजन्मवेदनीयः’ कहते हैं। और जो कर्म अगले किसी जन्म में फल देने वाले होते हैं उन्हें ‘अदृष्टजन्मवेदनीयः’ कहते हैं। इन सकाम कर्मों से मिलनेवाले फल तीन प्रकार के होते हैं। १.जाति, २. आयु ३. भोग। समस्त कर्मों का समावेश इन तीनों भागों में हो जाता है। जाति अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष, वनस्पति आदि विभिन्न योनियाँ। आयु अर्थात् जन्म से लेके मृत्यु तक के बीच का समय। भोग अर्थात् विभिन्न प्रकार के भोजन, वस्त्र, मकान, यान आदि साधनों की प्राप्ति।अदृष्टजन्मवेदनीय कर्म दो प्रकार के होते हैं- १.नियत विपाक, २. अनियत विपाक। कर्मों का ऐसा समूह जिसका फल निश्चित हो चुका हो और अगले जन्म में फल देने वाला हो उसे ‘नियत विपाक’ कहते हैं। कर्मों का ऐसा समूह जिसका फल किस रूप में कब मिलेगा यह निश्चित न हुआ हो उसे ‘अनियत विपाक’ कहते हैं।
पाप पुण्य के आधार पर कर्मभेदयोग दर्शन के अनुसार पाप पुण्य के आधार पर कर्म के चार भेद बताए गए हैं-(१) शुक्लकर्म- अर्थात् शुभ कर्म-सुख प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म- यथा दान, सेवा आदि।(२) कृष्णकर्म- अर्थात् अशुभ कर्म, दुःख प्राप्त करानेवाले पाप कर्म- यथा चोरी, हिंसा आदि।(३) शुक्लकृष्णकर्म- शुभ तथा अशुभ दोनों से मिले हुवे-कुछ सुख तथा कुछ दुःख दोनों को प्राप्त कराने वाले मिश्रित कर्म-यथा खेती करना, चोरी करके दान देना, भोजन बनाना आदि। इन कर्मों से किसी को तो सुख होता है और कुछ क्षुद्र जन्तुओं कीड़े-मकोड़ों की हिंसा भी होती है।(४) अशुक्लकृष्णकर्म- अर्थात् निष्काम कर्म जो लौकिक सुख को प्राप्त कराने वाले न होकर ईश्वर की प्राप्ति या मुक्ति को प्राप्त कराने वाले होते हैं। इनमें केवल शुक्ल कर्म ही आते हैं।
फल के आधार पर कर्मभेद फल के आधार पर कर्म के तीन भेद हैं-(१) संचित- पिछले जन्मों से लेकर अब तक किये जा चुके कर्म-जिनका फल मिलना अभी शेष है।(२) प्रारब्ध- इन्हीं संचित कर्मों की वह पूंजी जिसका फल मिलना प्रारम्भ हो गया है या मिल रहे हैं वे प्रारब्ध कर्म हैं। यथा शरीर आदि का मिलना।(३) क्रियमाण- जो कर्म वर्तमान में किये जा रहे हैं उन्हें क्रियमाण कर्म कहते हैं।
‍कर्त्ता के आधार पर कर्मभेद‍
कर्त्ता के आधार पर कर्म के तीन भेद हैं –(१) कृत कर्म- ऐसे कर्म जिनका कर्त्ता स्वयं जीव ही होता है वे ‘कृत’ कर्म कहलाते हैं।(२) कारित कर्म-जिन कर्मों को जीव साक्षात् स्वयं न करके अन्यों से करवाता है या करने को प्रेरणा देता है। वे ‘कारित’ कर्म कहलाते हैं।(३) अनुमोदित कर्म- जिन कर्मों को जीव साक्षात् स्वयं न करता है न कराने के लिए किसी को प्रेरित/आदेश करता है किन्तु स्वतंत्र रूप से किसी के किये गये कर्म का अनुमोदन व समर्थन करता है वे कर्म अनुमोदित कर्म कहलाते हैं।जब तक आप अपनी समस्याओं एवं कठिनाइयों की वजह दूसरों को मानते है, तब तक आप अपनी समस्याओं एवं कठिनाइयों को मिटा नहीं सकते|
आचार्य संजय कुमार तिवारी (शशि बाबा)

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