“स्वामी सहजानन्द सरस्वती अपने युग-धर्म के अवतार थे| वे नि:संग थे. अपने समय के पदचाप के आकुल पहचान थे| किसान विस्फोट के प्रतीक थे. किसान आंदोलन के पर्यायवाची थे. उत्कट राष्ट्रवादी थे।पद राष्ट्रवादी वामपंथ के अग्रणी सिद्धांतकार, सूत्रकार एवं संघर्षकार थे. ये दुर्द्धर्ष व्यक्तित्व के धनी थे. सामाजिक न्याय के प्रथम उद्घोषक थे. संगठित किसान आंदोलन के जनक एवं संचालक थे. अथक परिश्रमी थे. तेजस्वी व्यक्तित्व के स्वामी थे.वेदांत और मीमांसा के महान पंडित थे. मार्क्सवाद के ठेठ देसी संस्करण थे.ऐसे किसान क्रांतिकारी थे जिनकी वाणी में आग होती थी एवं क्रिया में विद्रोह. आडंबरविहीन थे. उत्पीड़न के खिलाफ दुर्वासा थे, परशुराम थे. स्वामी जी में खाँटी खरापन, खुरदुरापन, बेधड़कपन, बेलौसपन था. अजीब मस्ती के धनी थे. धुनी थे जो ठान लिए तो कर के ही दम लेनेवाले.|
लल्लो-चप्पो से जल-भुन जानेवाले थे. उनके पास दोस्त दुश्मन की एक ही पहचान थी – किसानों के प्रति उनका व्यवहार. किसानों के सवाल पर, आजादी के सवाल पर समझौताविहीन संघर्षरत योद्धा थे. ये दलितों के योद्धा संन्यासी थे. भारत के पूरे राजनीतिक क्षितिज पर यही एक अकेला, भिन्न, अलग, विशिष्ट, अलबेला व्यक्ति नजर आते हैं जिन्होंने पूरे जीवन में कभी भी असत से समझौता नहीं किया. यही कारण था कि सुभाषचंद्र बोस और योगेंद्र शुक्ला ऐसे राष्ट्रवादी क्रांतिकारी इनके चरण चूमते थे. बेनीपुरी, दिनकर, रेणु, अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, मुल्कराज आनन्द, महाश्वेता देवी, उग्र, रामनरेश त्रिपाठी, मन्मथनाथ गुप्त, ए.आर. देसाई, सरदेसाई, राजनाथ पांडेय, शिवकुमार मिश्र, केशव प्रसाद शर्मा ऐसे साहित्यकार इनसे जुड़े रहे एवं अधिकांश ने इन्हें अपनी रचना के केंद्र में रखा. मगर स्वामी जी को जितना आदर सुभाषचंद्र बोस, इंदुलाल यागनिक, यदुनन्दन शर्मा, राहुल सांकृत्यायन ने दिया उतना उन लोगों ने किसी और को नहीं दे।स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जन्म महाशिवरात्रि के दिन सन 1899 में हुआ था. वह जुझौ- तिया ब्राह्मण थे. स्वामी के पूर्वज बुंदेलखण्ड से गाजीपुर के देवा गाँव आए एवं अपने समतुल्य ब्राह्मण की दूसरी उपजाति भूमिहार ब्राह्मणों (बाभन) से रक्त-सम्बन्ध द्वारा घुल-मिल गए. स्वामी जी का जन्म एक निम्न मध्यवर्गीय किसान परिवार में हुआ. एकांत प्रिय, सरलचित्त, सत्यनिष्ठ, विचारक, जिज्ञासु, साधनारत, धुनी, नि:संग अनासक्त, कर्मशील, योद्धा क्रांतिकामी, सक्रिय वेदांत के मर्मज्ञ, मीमांसा के ज्ञाता, बहुपठित शास्त्रज्ञ, वर्ग-संघर्ष के पैरोकार, व्यावहारिक मार्क्सवाद के जानकार, राष्ट्रवादी-वेदांती मार्क्सवादी , सत पर अडिग रहनेवाले संत थे तथा कई भाषाओं के जानकार थे स्वामी सहजानन्द.
गाजीपुर के जर्मन मिशन स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा के बाद स्वामी जी 1917 ई. में कुल अट्ठारह वर्ष की उम्र में ही संन्यासी हो गए. फिर वह ईश्वर और सच्चे योगी की खोज में हिमालय, विंध्यांचल, जंगल, पहाड़, गुफा की दर-दर खाक छानी पर कहीं भी न’हरि ही मिले न विशाले सनम.’
फिर वह काशी और दरभंगा के उद्भट विद्वानों के संग वेदांत, मीमांसा, न्याय शास्त्र का गहन अध्ययन किया. इस अध्ययन से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हृदय, मस्तिष्क और हाथ तीनों के बीच उचित तालमेल अर्थात श्रद्धा पर बुद्धि का, बुद्धि पर संवेदना का, विश्वास का, श्रद्धा का, पहरा जरूरी है तथा श्रद्धा और बुद्धि का शिल्प से जुड़ाव आवश्यक है.
फिर स्वामी जी 1915 ई. में सामाजिक कार्य जुड़ गए. वह पुरोहितवाद, कथावाचन के ब्राह्मण जाति के एक उपजाति के एकाधिकार के खिलाफ हो गए. किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ डट जाना तथा गिरे हुए को उठाना को अपना कर्तव्य मानने वालें स्वामीजी ने ब्रह्मर्षि वंश विस्तार, झूठा भय, मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण समाज की स्थिति इत्यादि पुस्तकें लिखीं.
1919 ई. में बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु से उपजी संवेदना के कारण स्वामी जी खिंच कर राजनीति में आ गए. तिलक स्वराज्य फंड के लिए कोष इकट्ठा करने के साथ साथ वह असहयोग आंदोलन में जेल भी गए.
1927 ई. में स्वामी जी ने पश्चिमी किसान सभा की नींव रखी. स्वामी जी के मन से दु:खियों, शोषितों को छोड़ मुक्ति की कामना जाती रही. स्वामी जी ने ‘मेरा जीवन संघर्ष’ में लिखा है,”मुनि लोग तो स्वामी बन के अपनी ही मुक्ति के लिए एकांतवास करते हैं. लेकिन, मैं ऐसा हर्गिज नहीं कर सकता. सभी दु:खियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्ति नहीं चाहिए. मैं तो इन्हीं के साथ रहूँगा और मरूँगा – जीऊँगा.”
सहजानन्द का सामंत-विरोधी संघर्ष ही आजादी की असली लड़ाई थी. अन्तत: यही सही साबित ठहरी.
बिहार का किसान दानाबंदी, भावली, बेगारी, डोला, बकाश्त बेदखली, ऋणग्रस्तता, मंदी के असर से सस्ती से बेहाल था. इस भौतिक परिस्थिति में जहाँ चारों ओर तमस पसरा हुआ था, स्वामी सहजानन्द का किसान आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन में नया खून, नया आवेग देकर नई आशा का संचार करनेवाला साबित हुआ. अब, कांग्रेस की पहचान किसान आंदोलनों से ही होने लगी और राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आने के लिए माध्यम बना कर विदेश पढ़े बाबू वर्ग ने भी दिलचस्पी लेना शुरू किया. इस क्रम में नेहरू, जयप्रकाश, लोहिया, एन.जी. रंगा सभी सहजानन्द जी के संपर्क में आने लगे। स्वामी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है,” ‘जिसका हक छीना जावे या छिन गया हो उसे तैयार कर के उसका हक उसे वापस दिलाना, यही तो मेरे विचार से आजादी की लड़ाई तथा असली समाज सेवा का रहस्य है.’ इस प्रकार सहजानन्द का सामंत विरोधी संघर्ष ही आजादी की असली लड़ाई थी.
वर्ष 1934 में, जब बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ था, तब स्वामीजी ने बढ़-चढ़कर राहत और पुनर्वास के कार्यों में भाग लिया था, लेकिन उस समय वहां किसान जमींदारों के अत्याचारों से पीड़ित थे क्योंकि जमींदारों के लठैत किसानों को कर भरने के लिए प्रताड़ित कर रहे थे. उसी समय स्वामी जी पटना में कैंप कर रहे महात्मा गांधी से मिले और वहां की जनता का हाल सुनाया तभी गांधीजी ने कहा “मैं दरभंगा महाराज से मिलकर किसानों के लिए ज़रूरी अन्न का बंदोबस्त करने के लिए कहूंगा.” इतना सुनकर स्वामी जी गुस्से से लाल हो गए और वहाँ से चले गए और जाते-जाते उन्होंने गांधीजी को कहा कि “अब आपका और मेरा रास्ता अलग-अलग है.”
स्वामी जी के जीवन का तीसरा चरण तब शुरू हुआ था जब कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को ही अपने जीवन का लक्ष्य घोषित किया तब उन्होंने यह नारा दिया- “कैसे लोगे मालगुजारी, लट्ठ हमारा ज़िन्दाबाद.”बाद के दिनों में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से हाथ मिलाया। अप्रैल1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई और स्वामी सहजानंद सरस्वती को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया. एम जी रंगा, ई एम एस नंबुदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्य जी,आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे तबके कई नामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे.
वर्ष 1949 में, महाशिवरात्रि के पर्व पर स्वामी जी ने पटना के समीप बिहटा में सीताराम आश्रम को स्थापित किया जो किसान आंदोलन का केन्द्र बना. वहीं से वह पूरे आंदोलन को संचालित करते थे.जमींदारी प्रथा के ख़िलाफ़ लड़ते हुए स्वामी जी का 26 जून 1950 को मुजफ्फरपुर में उच्च रक्तचाप से निधन हो गया था.आजादी के बाद सहजानंद सरस्वती ने 12-13 मार्च 1949 को ढकाइच जिला शाहाबाद में बिहार प्रांतीय संयुक्त किसान आन्दोलन में अध्यक्षीय भाषण में कहा था
“मरखप के हमने आजादी हासिल की. मगर आजादी का यह सिक्का खोटा निकला. आजादी तो सभी तरह की होती है न ? भूखों मरने की आजादी, नंगे रहने की आजादी, चोर डाकुओं से लुटपिट जाने की आजादी, बीमारियों में सड़ने की आजादी भी तो आजादी ही है न ? तो क्या हमारी आजादी इससे कुछ भिन्न है ? अंग्रेज लोग यहाँ के सभी लोहे, कोयले, सीमेंट और किरासिन तेल को खा पीकर तो चले गये नहीं . ये चीजें तो यहीं हैं और काफी हैं । फिर भी मिलती नहीं ! जितनी पहले मिलती थीं उतनी भी नहीं मिलती हैं !”
वाल्टर हाउजर ने उनके परिवर्तनशील व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए लिखा है ,“सहजानंद सरस्वती का व्यक्तित्व मूलतः परिवर्तनशील था . गाजीपुर के ग्रामीण, घरेलू लालन-पालन से आगे बढ़कर उन्होंने धार्मिक चिंतन-मनन का जीवन अपनाया, धर्म से जातिगत राजनीति की दिशा में बढ़े, फिर जातिगत राजनीति से आगे बढ़कर स्वाधीनता आन्दोलन की राष्ट्रीय राजनीति में पहुँचे, इसके बाद वे किसान सभा की किसान राजनीति में और अंततः मूलगामी कृषि-विषयक राजनीति में पहुँचे .”|